Monday, April 14, 2025

यादें ननिहाल की

ये जो सुंदर तस्वीर आप देख रहे हैं. ये मैंने नहीं बनाई! ये तो अमिताभ श्रीवास्तव जी ने बनाई है. वे आजकल अपने बचपन के शौक को फिर से ज़िंदा करने में लगे हैं. मैंने सोचा क्यों ना मैं भी इस बहाने अपने बचपन के ननिहाल की  खूबसूरत यादों को फिर से ज़िंदा कर लूं. बस फिर क्या था मैंने उन्हें एक तस्वीर भेजकर निवेदन किया कि अगर हो सके तो इसकी पेंटिंग बना दें. जिसके परिणाम स्वरूप यह आर्ट वर्क सामने आया. 


ये मेरे ननिहाल का एक कुआं है. बचपन की बहुत सारी यादें इसके साथ जुड़ी हुई हैं. दरअसल बचपन में जब भी गर्मियों में स्कूल की छुट्टियां आती थीं. तो साथ में मामा को भी बुला लाती थीं. मैं उनके साथ बस में बैठकर अपनी नानी-नाना के गांव जाता था. दो-तीन घंटे के इस सफ़र में मीठी-मीठी संतरे की गोलियां मेरा अच्छा साथ निभाती थीं. फिर गांव से थोड़ा पहले हम बस से उतर जाते थे. तब यहां से ही गांव के लिए तांगे मिला करते थे. तांगा सड़क के दोनों तरफ किकर के दरख्तों से बनी छाया में टक-टक करता हुआ गांव की ओर दौड़ता जाता था. रास्ते में कई गांव आते थे. सड़क के दोनों तरफ दूर-दूर तक बस खेत ही खेत नजर आते थे. वहीं कहीं-कहीं सड़क के किनारे भेड़ों और बकरियों के झुंड भी देखने को मिल जाते थे. कोई पांच-एक किलोमीटर की दूर तय करके तांगा गांव के अड्डे पर रुक जाता था. मैं और मामा तांगे से उतरकर खेतों के बीच से होते हुए अपने नानी के घर की ओर चलते जाते थे. रास्ते में गांव की औरतें मुझे देख मामा से पूछा करती थीं कि ' यो छोरा किसका स.' 

मामा उनसे कहते कि 'यो क्रीशो को छोरा है. दिल्ली रह स.' 

तो फिर वे औरतें कहा करती थीं 'अच्छा दलवाली है.' यानि दिल्ली का है. 

(बातचीत में बिल्कुल यही शब्द तो नहीं हुआ करते थे. लेकिन भाव यही हुआ करता.) 

ऐसे हम अपनी मां के गांव पहुंच जाते थे. 


नानी-मामी मुझे घर के काम करती हुई मिलती थी. मैं उन्हें नमस्ते कहता था. वे मुझे प्यार से पुचकारने लग जाती थीं. दो नानी, तीन मामी के पुचकारने से सिर के बाल अस्त-व्यस्त हो जाते थे!  मैं फिर या तो हाथों से बालों को ठीक कर लिया करता था. या फिर घर की दीवारों में जगह-जगह लगे छोटे-छोटे शीशों के सामने कंघी कर लिया करता था! फिर थोड़ी ही देर में मुझे भूख लग जाती थी. मैं रोटी-रोटी करने लग जाता था. तब मामी झट से चूल्हा सुलगाकर गर्म-गर्म रोटी बना दिया करती थीं. वहीं नानी उस पर नूनी घी रख दिया करती थीं. साथ में एक कटोरी दही भी दे दिया करती थीं. सब्जी तब के समय गांव के घरों में रोज नहीं बनती थी. सब्जी केवल तब बनती थी, जब कोई मेहमान आया करता था. वरना तो दही-दूध या चटनी से ही रोटी खा ली जाती थी. गांव की दही बिल्कुल सफेद नहीं हुआ करती थी. उसका रंग पके हुए दूध की तरह हल्का-सा पीला होता था. लेकिन स्वाद ऐसा कि दिल खुश हो जाया करता था. 


कुछ देर बाद सब अपने-अपने कामों से इधर-उधर निकल जाते थे. मैं अकेला रह जाया करता था. तब घर की बेहद याद आती थी. वहीं गर्मी अपना जलवा भी दिखाने लग जाती थी. तब मेरे नाना के यहां बिजली नहीं हुआ करती थी. उन दिनों बैठक के बाहर एक 'जाल' का पेड़ हुआ करता था. मैं बस उसके नीचे खाट डालकर बैठ जाया करता था. एक पक्षी होता है, कबूतर के जैसा. शायद उसे  'घूघी' कहते हैं. दोपहरी में वह उसी जाल के पेड़ पर बैठा मिलता था. उसकी आवाजें कानों में पड़ती रहती थीं. मैं उसे ही सुनता रहता था. मुझे उसकी आवाज प्यारी लगती थी. कभी-कभी ननिहाल में लगे नीम के पेड़ से 'मोर' भी नीचे उतरकर, मेरे आजू-बाजू टहलते रहते थे. यूं तो सामने ही मुख्य सड़क थी लेकिन दोपहरी में एक्का-दुक्का लोग ही आते-जाते नजर आते थे. सच में दोपहरी में समय काटना मुश्किल हो जाया करता था. लेकिन बाद के दिनों में मेरा दूसरे घरों की बैठकों में आना जाना शुरू हो गया था. जहां दोपहरी में 'ताश' के पत्तों की महफ़िल सजा करती थीं. एक तरफ लोग 'ताश' खेल रहे होते थे. वहीं दूसरी ओर टेप रिकॉर्डर पर 'रागनियां' बज रही होती थीं. कभी-कभी यूं भी होता था. मैं ट्रेक्टर पर घूमने की चाह में भरी दोपहरी में ट्रेक्टर से खेतों में चला जाया करता था. 


लेकिन फिर जैसे-जैसे घूप कम होती थी. गांव में कुछ रौनक-सी होने लगती थी. गांव के लोग अपने पशुओं को पानी पिलाने ले जाते दिखाई देने लग जाते थे. कोई अपनी भैंसों को ले जा रहा होता था. कोई अपने बैलों को ले जा रहा होता था. तब दिल लगने लगता था. तब तक दोपहर में गायब रहने वाले नाना-मामा भी घर आ जाया करते थे. आते ही पशुओं की सेवा-पानी में लग जाया करते थे. एक मामा नाना के साथ पशुओं का चारा कटवा रहे होते थे. दूसरे मामा पशुओं को पानी पिलाने ले जा रहे होते थे. कभी-कभी मैं भी मामा के साथ बैलों को पानी पिलाने ले जाता था. 


फिर जैसे-जैसे शाम होने को होती थी. घरों की औरतें भी कुएं से पानी लेने के लिए निकल पड़ती थी. अक्सर मामी मुझसे हंसते हुए कहती थी कि चल मेरे साथ, एक घड़ा पानी का तू भी उठाकर लाइयो. अक्सर मैं उनके साथ चला जाता था. वे कुएं से पानी लेने के लिए साफ़-सुथरे, नए-से कपड़े पहनकर जाती थीं. वे कपड़ों में 'घाघरा', 'कमीज','चुंदडी' पहना करती थीं. लेकिन जो 'घाघरा' होता था, वो घाघरा नहीं कुछ-कुछ 'पेटिकोट' टाइप होता था. वे उसके ऊपर हमेशा सफेद रंग की कमीज पहनती थीं. कालर वाली कमीज में दोनों तरफ बंद दो जेब हुआ करती थीं. वहीं सबसे ऊपर चुंदडी होती थी, जिस पर खूब सारे कांच या प्लास्टिक के गोल-गोल सितारे से लगे होते थे. जोकि चमकते थे. चुंदडी हर रोज अलग रंग,अलग डिजाइन की हुआ करती थीं. सिर पर गोल सुंदर रंगबिरंगी-सी एक चीज हुआ करती थी, जिस पर घड़ा रखा जाता था. अभी उसका नाम याद नहीं आ रहा. वहीं पैरों में घुंघरु वाली पाजेब होती थी. कभी-कभी मामी चांदी का कमरबंद भी पहना करती थीं. गले में भी कुछ-न-कुछ पहना होता था. अब याद नहीं कि मामी गले में क्या पहनती थीं. लेकिन इतना याद है वो सोने का हुआ करता था. जब वे घर से निकलती थीं तो गले तक घूंघट होता था. सिर पर कभी एक घड़ा, कभी दो घड़े होते थे. वहीं एक हाथ में एक और घड़ा और दूसरे हाथ में खाली पानी की बाल्टी होती थी, जिस पर रस्सी बंधी होती थी. इसी बाल्टी से कुएं से पानी निकाला जाता था. जब वे चलती थीं, तब पाजेब छम-छम करती थी. ऐसा नहीं कि मेरी मामी ही साफ़-सुथरे नए-से कपड़े पहन कर आती थीं. उस कुएं पर आई अधिकतर औरतें नए-से कपड़े पहनकर आती थीं. 


कुआं थोड़ा ऊंचाई पर था. काफी सीढियां चढ़कर ही उस तक पहुंचा जाता था. कुएं पर मेरे पहले दिन पहुंचने पर मैं ही चर्चा के केंद्र में होता था. हर कोई मेरे से ही सवाल पूछता था. कौन हूं मैं? क्या नाम है मेरा? कहां से आया हूं? ऐसे ही अनेक सवाल. फिर दूसरे दिन औरतों की चर्चाओं में दुनिया जहान की बातें आ जाती थीं. कुएं से पानी भरती जातीं और बातें करती जातीं. मैं एक कोने में खड़ा जोहड़ को देखता रहता था. उस कुएं से पूरा जोहड़ नजर आता था. जिसमें पशु डुबकी लगा रहे होते थे. कुछ पशु पानी पी रहे होते थे. कुछ लोग अपने पशुओं को जोहड़ में घुसकर निकाल रहे होते थे. कुछ बच्चे जोहड़ में उछलकूद मचा रहे होते थे. बगल में ही एक पीपल का विशाल पेड़ था. उससे अच्छी-खासी हवा आती थी. कुएं के बगल में एक मंदिर भी था. कभी-कभी बीच में उधर से घंटी के बजने की आवाजें भी आती थीं. जब मामी अपने पानी के सारे घड़े भर लेती थीं तो खाली बाल्टी, जिसमें रस्सी बंधी होती थी उसे मुझे दे देती थीं. इस तरह मैं और मामी कुएं से अक्सर पानी लाया करते थे. 


फिर कुछ ही देर में सूरज ढल जाता था. घर में दीपक जल उठता था. नानी रसोई के बाहर वाला चूल्हा सुलगा लिया करती थीं. कुछ देर में ही हम सबके के लिए मोटी-मोटी रोटियां बननी शुरू हो जाती थीं. हम सब के सब चूल्हे के पास बैठकर गर्म-गर्म दूध-रोटी खाते थे. आखिर में नाना आते थे, अपनी तांबे की लुटिया लेकर. वे दो रोटी और लुटिया भरकर दूध ले जाते थे. फिर बैठक में जाकर खाया करते थे. समय का तो पता नहीं लेकिन एक तह वक्त पर सब सोने चले जाया करते थे. मेरी खाट बैठक के बाहर जाल के पेड़ के पास नाना की खाट के बिल्कुल बगल में डली होती थी. अक्सर नाना ही मेरी खाट बिछाया करते थे, जिस पर एक तकिया, एक पतली चादर रखी हुआ करती थी. नाना ज्यादा बातें नहीं करते थे. बस थोड़ी बहुत बातों के बाद वे सो जाया करते थे. मैं लेटा-लेटा आसमान में चमकते चांद-तारों को देखा करता था. इतने तारे दिल्ली वाले घर में कभी नजर नहीं आते थे. कभी-कभी बीच में दूर कहीं से ट्रेक्टर की आवाजें भी आया करती थीं. कभी-कभी इक्का-दुक्का मोर भी रात को अपनी प्यारी आवाज निकाला करते थे. वहीं रात को बीच-बीच में सड़क पर कुत्ते भौंका करते थे. फिर नाना उन्हें गाली देकर भगाया करते थे! इन्हीं आवाजों के बीच कब नींद आ जाती थी पता ही नहीं चलता था. फिर आंखें सुबह ही चिड़ियों की चहचहाहटों से खुला करती थीं.


Monday, April 7, 2025

पिताजी और इनका कबाड़खाना


दरअसल अभी काजल जी ने कबाड़खाने की बात की. और उनका मानना है कि इस कबाड़ में से कुछ ना कुछ काम का जरुर निकल जाता है, जोकि सच बात है. और कबाड़खाने की बात पढ़कर मुझे भी बहुत कुछ याद आने लगा.


अंकलजी, कोई छोटा-सा लकड़ी का गुटका है.

क्या करना है. 

बस यहां सपोर्ट के लिए चाहिए.

अच्छा देखता हूं.

ये लो. 

ऐसा ही तो चाहिए था.


चाचा एक तीन एक फुट का पाइप है क्या? 

क्या करना है?

यहां जोड़ना है.

देखता हूं. 

ये लो. 


अंकलजी.

हां. 

एक तार चाहिए. 

कितना बड़ा?

हो कोई तीन-एक मीटर का. 

देखता हूं.वैसे करना क्या है?

कम पड़ गया तार.

अच्छा देखता हूं. 

ये लो.



अंकलजी.

हां 

एक नट चाहिए था. एक-दो इंच का. 

देखता हूं. 

ये देखो. इससे काम बन जाएगा. 

हां बन जाएगा. 


जब भी कोई मिस्त्री हमारे घर आता है. तब इस प्रकार की बातचीत हमारे घर में सुनने को जरुर मिल जाती है.  वैसे हर घर की तरह एक कबाड़खाना हमारे घर में भी है, जिसके इंचार्ज हमारे पिताजी हैं. मजाल है कि कोई भी सामान बाहर फैंकने दें. उनका मानना है कि हर बेकार चीज का इस्तेमाल हो सकता है. बस फर्क इतना सा है कि उसका इस्तेमाल आज नहीं लेकिन एक ना एक दिन तो जरुर होगा. और यह बात सच है. और एक बार मुझे भी महसूस हुई. 

शायद कोरोना के समय 2020 के आखिर दिनों की बात है. घर में एक नई रसोई का निर्माण होना था.और उसकी जगह बननी थी हमारे कमरे में से, जिसकी वजह से हमारा कमरा छोटा होना था.  इसी वजह से हमारी किताबों की अलमारी को हटाना पड़ा था. तब मुझे ख्याल आया कि इस अलमारी को कबाड़ी को देने से अच्छा है कि इसे बेटी के स्कूल को दे दिया जाए. और इसके साथ कुछ किताबें भी. पिताजी कहते रह गए कि इसे स्टोर रूम में रख दो. बाद में काम आ जाएगी. माना करो मेरी बात.वे कहते रहे.लेकिन मैं नहीं माना. मुझे लगा कि स्कूल में अलमारी और किताबें जाएंगी तो ज्यादा अच्छा होगा. खैर अलमारी और किताबें स्कूल को दे दी गईं. लेकिन पिछले साल की बात है. जब किसी काम के लिए एक अलमारी की बेहद आवश्यकता हुई तो मुझे उस अलमारी की बहुत याद आई. नई अलमारी के लिए पैसे नहीं थे. तब पिताजी की कही बात भी याद आई कि इसे स्टोर रूम में रख दो. बाद में काम आ जाएगी. खैर! 

बल्कि एक बात और नमूने के तौर बताता हूँ कि एक लोहे का बहुत मजबूत, बड़ा पाइप था, जो हमारे घर तब आया था जब हमारे घर पहली बार बिजली आई थी. तब इस लोहे के पाइप के अंदर से बिजली के केबल के तार गए थे खंभे तक. ये पाइप इतना मजूबत है कि दो दिन पहले ही सबसे नीचे के लेंटर के सपोर्ट में काम आया है. सोचकर देखूं तो ये पाइप 45 साल से भी ज्यादा पुराना है, जोकि आजतक केवल पिताजी के कारण घर में रखा हुआ था.हमने कितनी बार कहा कि इसे बेच दो. इसे किसी को दे दो. लेकिन वे नहीं माने और आज ये घर के सपोर्ट में काम आया. ऐसे ही ना जाने कितने उदाहरण होंगे मेरे पास.बाकी आप तस्वीरों से भी अंदाजा लगा सकते हैं. वैसे तो पिताजी और इनके कबाड़ख़ाने पर लिखने के लिए बहुत कुछ है और बहुत मन भी है लेकिन फिलहाल इतना ही. बाकी फिर कभी.


 

Tuesday, January 14, 2025

यादें सर्दियों की...

टाइफाइड बुखार तो उतर गया लेकिन शरीर ऐसा हो गया है कि कमबख्त ठंड ऐसे सता रही है कि कुछ देर कंबल रजाई से बाहर रहने पर ठंड से सिर और छाती में दर्द-सा महसूस होता है. पैर बर्फ-से हो जाते हैं. और फिर पैर सीधे कंबल-रजाई की तरफ दौड़ जाते हैं! कंबल-रजाई में घुसे-घुसे किताब पढ़ने की सोचो तो चश्मा साथ नहीं देता. अक्षर धुंधले हो जाते हैं. फिर हाथ से किताब की दूरी को बढ़ाता हूं तो अक्षर कुछ-कुछ पढ़ने लायक हो पाते हैं लेकिन फिर हाथ जवाब दे जाते हैं. मोबाइल पर कुछ देर कुछ देखो-दाखो तो उसकी बैटरी बोल जाती है. आखिर एक आदमी कब तक कंबल-रजाई में पड़ा रहे. सच में इस ठंड ने उस एक आदमी का बुरा हाल कर रखा, जो कभी इस ठंड को इतना प्यार करता था कि मन ही मन सवाल करता था कि यार ये ठंड इतने कम दिन क्यूं रहती है?

कल रात रजाई में लेटे-लेटे सोच रहा था कि सर्दियों के वो भी क्या दिन थे. जब रूपनगर के स्कूल की सुबह की प्रार्थना में तू ही एक अकेला ही ऐसा लड़का होता था, जो सफ़ेद कमीज में नजर आता था. जैसे आजकल राहुल गांधी एक टी-शर्ट में नजर आते हैं! जैसे आजकल राहुल गांधी की टी-शर्ट की चर्चा हो रही है. ठीक वैसे ही उस वक्त स्कूल में तेरी कमीज की चर्चा हुआ करती थी. वो अलग बात है टीचर इस बात पर डांट भी दिया करते थे. मेरे क्लास टीचर 'जाट' ( हम उन्हें जाट ही कहते थे. जैसे एक दूसरे टीचर को बाऊ. बाऊ वाला किस्सा भी बहुत मजेदार है. शायद उसके बारे में तो मैंने लिखा भी है.) अक्सर कहते थे वो छोकरे कभी तो स्वेटर-जर्सी पहन आया कर. एक दिन वे बोले,'कल कमीज में नजर नहीं आना चाहिए.' एक दो बार प्रिंसिपल साहब ने भी टोका था. और मैं था कि स्कूल में कमीज में ही नजर आता था. 

बात दरअसल कुछ यूं थी. स्कूल में नीली जर्सी या स्वेटर लगा हुआ था, जो मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं था. तो मैं घर से दूसरे रंग का स्वेटर या जर्सी पहन कर निकलता था और स्कूल में उसे निकालकर डेस्क में डाल देता था. और ठंड से बचने के लिए कमीज के नीचे गर्म बनियान तो पहना ही करता था. और शायद कमीज के नीचे ही एक पतला स्वेटर भी पहना करता था. और मफलर तो था ही! जिससे सिर्फ कान और नाक ढंका करता था. सिर नहीं क्योंकि तब मेरे सिर पर बाल हुआ करते थे! और कभी जब ज्यादा ठंड होती थी तो क्लास में वो दूसरे रंग स्वेटर को पहन लिया करता था. और टीचर के आते उसे झट से उतार दिया करता था.

मुझे अच्छी तरह याद है. रूपनगर के स्कूली दिनों में हम बस से स्कूल जाया करते थे. या तो 234 नंबर  बस लेते थे. या फिर कभी बालकराम से 108 नंबर बस. लेकिन ज्यादातर हम किसी भी बस से माल रोड तक पहुंच जाते थे. और फिर माल रोड जहां से 212 नंबर बस आती है वहां से शायद 365 नंबर बस लिया करते थे. उस बस कई किस्से हैं. (उस बस के कंडक्टर जैसा दूसरा कंडक्टर मैंने आजतक नहीं देखा. कॉलेज के लड़कों  के पास बस पास ना होने पर वे बस रुकवाकर छात्र को बीच रोड़ पर उतार देते थे.अक्सर मैंने उन्हें छात्रों से  भिडते  हुए देखता था.) 

कभी-कभी जब अच्छा-खासा कोहरा होता था. तब मेरा मन माल रोड़ से पैदल ही स्कूल जाने को करता था. उस कोहरे में पैदल चलने का अलग ही आनंद होता था. मैं दोस्त से कहता था कि यार आज पैदल ही निकल पड़ते हैं. तो वो कहता था,'पागल हो गया है क्या तू. इतनी ठंड और कोहरे में कोई पैदल चलता है क्या!'  मैं बोलता था,'तुझे चलना है तो बता वरना मैं ही अकेले ही निकल जाता हूं.'और वो फिर मेरा साथ देता हुआ. साथ-साथ चलने लगता था. 

नाक और कान को मफलर से ढककर. हाथों को जेबों में डालकर. बोंटा पार्क के सामने से दिल्ली यूनिवर्सिटी के गेट से अंदर-अंदर चलते हुए. अब तो याद भी नहीं कि रास्ते में क्या-क्या पड़ता था. क्या-क्या मिलता है. शायद साइंस ब्लाक मिलता था. कुछ प्रोफेसर के घर मिलते थे. एक होस्टल भी मिला करता था. और फिर इन सबसे होते हुए हम आर्ट फैकल्टी वाली रोड से मोरिस नगर का स्टैंड से होते हुए स्कूल पहुंचते थे. पूरे रास्ते भर दोनों दोस्त दुनिया जहां की बातें किया करते थे. अब आप सोच रहे होंगे कि जब माल रोड से रूपनगर पैदल जाते थे तो फिर घर से कब निकलते थे. दरअसल हमारे घर के पास जो बस स्टैंड था. उस पर सुबह स्कूल टाइम पर इतनी भीड़ हो जाती थी कि उस वक्त बस पर चढ़ना मुश्किल होता था. और ऐसा ही मोरिस नगर के स्टैंड पर होता था स्कूल की छुट्टी होने के बाद. हम दोनों का फैसला था कि समय से पहले स्कूल पहुँचना और स्कूल से समय से पहले ही निकल जाना. यानि लास्ट पीरियड को छोड़ देना. कभी स्कूल में सख्ती होती थी तो अलग बात है. वरना तो ऐसा ही चलता था. 

सर्दियों से याद आया. हम दोनों सर्दियों में एक शरारत किया करते थे. जब कोई दोस्त बातों में व्यस्त होता था तो हम पीछे से जाकर उसके एक हिप पर दो उंगली से ऐसे मारा करते थे कि सामने वाला दोस्त 'ओ तेरी, ओ तेरी या फिर गाली देता' हुआ उछलने लगता था. जितनी ज्यादा ठंड होती थी उन दो उंगलियों के चोट उतनी ही ज्यादा लगा करती थी. और मैं था कि पेंट के नीचे गर्म पजामी पहनकर आया करता था. बस 'ओ तेरी' करके ही रह जाता था, गाली कभी नहीं निकली!!

Thursday, January 2, 2025

बस तुम सोचो

मैंने पूछा अपने आप से
ये भी कोई साल है यार
इस नए साल में नया क्या है?
वही सूरज है
वही चाँद है
वही तुम हो
वही मैं हूँ
वही तकलीफें हैं
वही मुश्किलें हैं
और
वही डर
सब संग-संग ही तो हैं।
फिर आई एक आवाज
ना-ना
सुनो तुम मेरी बात
नया जैसा कुछ नहीं होता है
नया तो बस एहसास होता है
तुम सोचा यह नया साल है
यह उसका सुंदर-सा पहला दिन
बस तुम सोचो
और चुरा लो
इन तकलीफों में से
इन मुश्किलों में से
एक पल
और फिर मुस्करा दो
अपनी ही किसी भी बात पर
और
बस तुम सोचो
यह नया साल है!

Monday, December 2, 2024

'तू' और 'आप' की कहानी

 

एक बार बेटी ने कहा था..

पापाजी आपने मेरी 'आप-आप' कहकर आदत खराब कर दी.

क्यूं भई. क्या हुआ?

पता है. अब कोई मुझे 'तू' बोलता है तो अच्छा नहीं लगता! 


तब यह बात मैंने यूं ही हंसी-हंसी में सुनी-अनसुनी कर दी थी. लेकिन पिछले दिनों एक दोस्त के साथ एक वाक्य घटा देखा-सुना तो यह बात याद हो आई. 


दरअसल पिछले दिनों जब वह (मेरा दोस्त) अपने दोस्तों से मिलने जा रहा था. तो अपने एक दोस्त के घर के पास से जानबूझकर गुजरा कि क्या पता उसका उसके दोस्त से आमना-सामना हो जाए. क्योंकि पिछले कुछ सालों से उसकी राहें और उसके दोस्त की राहें अलहदा-अलहदा हो गई थीं. राहें बेशक अलग-अलग हो गई थीं लेकिन शायद 'कुछ था' जो उसे और उसके दोस्त को जोड़े हुए था. वैसे भी उन दोनों के बीच 32 साल पुरानी दोस्ती जो थी. और इसी 'कुछ' की वजह से जब-जब भी उसके दिल से मुलाक़ात की आवाज निकलती. तब-तब बेशक उन दोनों मुलाकात ना हो पाती हो लेकिन आमना-सामना तो हो ही जाता था. और उसे इसी बात से सुकून मिल जाता था कि वो ठीक है. स्वस्थ है.


और इस बार उसकी मुलाकात उसके दोस्त से हो गई थी. वो दोनों के कॉमन दोस्तों के बीच खड़ा था. उसका दोस्त आया और सबसे हाथ मिलाता रहा. जब उससे हाथ मिलाने की बारी आई तो उसके दोस्त का हाथ उससे हाथ मिलाने को बढ़ा ही नहीं. शायद कोई वजह रही होगी. कोई गिला रहा होगा.


खैर उसने यह बात कहकर बात को आगे बढ़ाया कि ' क्या बात जो मेरे से हाथ नहीं मिलाया.


' खैर उसके दोस्त का हाथ बढ़ा. यह कहते हुए कि ''आप' लोग तो वीआइपी हो. बड़े लोग हो. 'आप' लोगों से मैं कहां हाथ मिला सकता हूं.' 


'आप' शब्द की ध्वनि उसके कानों में से ऐसे गुजरी जैसे किसी ने उसे कुछ भला-बुरा कह दिया हो. या फिर किसी ने उसके दिल पर चोट कर दी हो. वो 'आप' शब्द की टिस लिए अपने दोस्त से बोल उठा कि 'मैं तेरे लिए कब से 'आप' हो गया.

' उसका दोस्त बोला,' जब से मुझे दुनियादारी की समझ आ गई है.


' वो कटाक्ष पर कटाक्ष सुनता रहा और अंदर ही अंदर बिलखता रहा. और फिर जब उससे रहा नहीं गया तो एक साइड होकर आसमां की तरफ देखता रहा. शायद दोस्ती के पुराने दिनों को याद कर मानो बोल रहा हो,'दोस्ती क्या सिर्फ लेन-देन से होती है! यानि जब तक एक दूसरे के काम आते रहो, एक हाथ दो, दूसरे हाथ लेते रहो.या फिर दूसरे हाथ से लेते रहो, पहले हाथ से देते रहो तो ठीक वरना एक बार साथ ना दे पाओ तो दोस्ती टूट जाती है!' 


खैर अपने मन को हल्का कर वो फिर से ग्रुप में शामिल हो गया. हम सब हंस बोल रहे थे. वो अब गूंगा-सा बिना बोले ही हम सबकी बातें सुनता रहा. और जब चलने यानि विदा होने की बारी आई तो उसके दोस्त ने अबकी बार भी सबसे हाथ मिलाया सिवाय इसके. और उसका दोस्त बायं राह की तरफ मुड़ गया. और ये मेरे साथ हाथ ना मिलाने की टिस लिए दाएं राह की तरफ चल दिया. 


और मैं यह सब लिखते हुए सोच रहा हूं कि  जीवन के रंग कितने अजीब होते हैं.  बेटी 'तू' कहने से परेशान थी. और मेरा दोस्त 'आप' कहने से परेशान है! 


Thursday, September 12, 2024

मेरी निम्मो

 

कोई-कोई फिल्म प्यार-सी मीठी, प्रेमिका-सी सुंदर और बच्चे-सी मासूम होती है. कुछ ऐसी ही मीठी,सुंदर और मासूम फिल्म है 'मेरी निम्मो'. यूं तो इस फिल्म की कहानी एक छोटे से गांव में जन्मी प्रेम की साधारण-सी कहानी है लेकिन यह साधारणता ही इस फिल्म की खूबसूरती है.इस सादी कहानी में गांव के एक नाबालिग लड़के 'हेमू' को एक बालिग लड़की 'निम्मो' से 'वैसा' वाला नहीं 'वो' वाला प्यार हो जाता है. फिल्म 'वैसे वाले प्यार' से शुरू होकर 'वो वाले प्यार' तक चलती है. और आखिर में गांव के एक बाहरी मोड़ से होकर एक दूसरे ही मोड़ को मुड़कर खत्म जाती है. बस इतनी-सी कहानी है इस फिल्म की. परंतु इस फिल्म में 'वैसे' और 'वो' वाले प्यार के बीच जो खट्टा-मीठा घटता है वो दिल को छू लेता है. ऐसा लगता है कि आप मासूमियत की नदी में रुक-रूककर डूबकी लगा रहे हैं. डूबकी से जो आनंद मिल रहा है. वो अद्भूत है. आपको इस फिल्म में गांव के खाली पड़े खेतों में क्रिकेट खेलने से पहले टॉस के लिए सूखे-गिले का इस्तेमाल करते बच्चे नजर आ जाएंगे. गांव की किसी गली के नुक्कड़ पर बच्चे पिठ्ठू खेलते दिख जाएंगे. गांव की एक सीधी गली में कुत्ते से डरता मेरे जैसा एक बच्चा मिल जाएगा. गांव के एक बड़े से घर से कोई लड़की लोकगीत 'झटपट डोलिया उठाओ रे कहरवा' गाते हुए मिल जाएगी. गांव में आई शहरी बारात में कोई शहरी 'एक्स्चुसे मी' कहता हुआ मिल जाएगा. फिल्म के इस गांव में घूमते हुए आपको कुछ ना कुछ अवश्य मिल जाएगा. जैसे मुझे ये सब मिला. आखिर में जब आप इस फिल्म को देखकर उठेंगे तो आपकी झोली खाली नहीं अलग-अलग एहसासों से भारी होगी. और ये एहसास ही मेरी निम्मोफिल्म की जान हैं.

नोट- फोटो गूगल से.

Tuesday, March 12, 2024

बचपन का दोस्त और बचपन की यादें

कभी कोई दोस्त अचानक से वर्षों बाद याद आ जाता है. याद आने के बाद मिलने या बात करने की तलब बेहद ज्यादा हो जाती है. लेकिन आपके पास ना उसका फोन नंबर होता है. और ना ही उसके घर का पता. बस तब आप मायूस होकर उसके साथ बिताए पुराने दिनों को याद करने लग जाते हैं.

खैर यह दोस्ती उन दिनों की है, जब सुबह-सुबह गली में दही ले लो दहीकी आवाज लगाते दही बेचने वाले आया करते थे. उनके सिर पर कपड़े की इंडी जैसी कुछ हुआ करती थी. और उसके ऊपर पतले कपड़े से ढकी दही की हांडी. अब तो याद भी नहीं कि दही कितने रूपए किलो मिला करती थी. लेकिन दही बेहद स्वादिष्ट हुआ करती थी. उसके स्वाद का कारण दही का मिट्टी की हांडी में जमना हुआ करता था.

फिर भरी दोपहरी में कुल्फी वालेघंटी बजाते हुए अपनी रेहड़ी लेकर आते थे, उनकी रेहड़ी में कुल्फी के पास एक लोहे की चरखी लगी होती थी. जिसके बीच में अंक लिखे होते थे. बच्चे लोग उसे घूमाते थे. और कोई-कोई बच्चा ऐसे घुमाता था कि दो-दो कुल्फी पा जाता था. और कोई एक आध तीन भी पा जाता था. और मेरे जैसा तो हमेशा बस एक ही कुल्फी पाता था.

उसी भरी दोपहरी में गली के नुक्कड़ पर एक भूस की टाल पर ताशखेलने वालों का मजमा भी लगा रहता था. वहां अक्सर ताश का गेम 'सीप' खेला जाता था लेकिन कभी-कभी दहला पकड़ भी खेला जाता था. ताश के 'सीप' के खेल में हम भी कभी-कभी हाथ आजमा लिया करते थे.

खैर मैं बात दोस्त की कर रहा था. मुझे इस वक्त उसकी शादी से जुड़ी एक घटना की याद आ रही है. हल्की वाली सर्दियों में दोस्त की शादी थी. कैमरा वाला करना उनके लिए संभव नहीं था. लेकिन शादी की फोटो याद के लिए हो जाएं तो ये भी हम दोनों की इच्छा थी. इसलिए कैमरे की तलाश शुरू हुई कि किसी दोस्त के पास कोई छोटा-मोटा कैमरा हो तो उसे शादी में ले जाया जाए. खैर हमारे एक किराएदार थे. वे एक बैंक में काम करते थे. और वे उत्तराखंड के थे. उनके पास कैमरा था. वो भी रील वाला. तब रील वाले कैमरे ही हुआ करते थे ज्यादातर. लेकिन वे कैमरामैन नहीं बनना चाहते थे. तब आपां दोस्त के लिए कैमरामैन बन गए थे.  बात बस इतनी-सी नहीं है. जो बात मैं बताना चाहता हूं वो दूसरी है.

खैर फिर क्या था शादी के दिन नए कपड़े पहनकर आपां कैमरामैन हो गए. बारात लुटियंस दिल्ली में किसी एमपी के घर के पीछे बने घरों में जानी थी. कैमरे की रील सीमित मात्रा में खरीदी गई थीं. तो फोटो भी हमारे द्वारा भी कम लिए जा रहे थे. शायद तीन-चार रील ही खरीदी गई थीं. और उस वक्त एक रील में 32-36 के करीब फोटो आती थीं. लेकिन जब फेरे के समय की बारी आई तो रील कम पड़ गईं. जहां तक मुझे याद है बस एक रील ही बची थी. तब मैंने यह बात दोस्त को बताई और कहा कि अब मैं क्या करूं? अब तो रील भी खरीदी नहीं जा सकती. क्योंकि उन दिनों उस लुटियंस इलाके में कोई दुकान भी नहीं थी. तब उसने कहा था, जो तुझे करना है वो तू कर ले. और फिर फेरों के वक्त जिसे देखो वही कहे कि मेरी फोटो ले लो दूल्हे के साथ. मैं फोटो लेने से मना कर दूं या अनदेखा कर दूं तो लोग गुस्से से देखने लगें. या गुस्सा हो जाएं. तभी मुझे ख्याल आया कि ऐसा करता हूं कि खाली फ़्लैश मार देता हूं. किसे पता चलेगा कि फोटो ली है कि नहीं. और ट्रिक काम कर गई. फिर फेरे के समय जो फोटो जरुरी लगती उसकी फोटो ले लेता था वरना तो फ़्लैश से काम चला लेता था. लेकिन तभी कोई महिला फेरों के बीच ही बोली, ' यो कैमरा वाला हमारी फोटो नहीं लेता खाली फ़्लैश मारे है बस.' और मेरी पोल खुल गई. आजतक पता नहीं यह पोल खुली तो कैसे खुली. फिर बाद में ही लड़कों वालों की तरफ से बताया गया कि ये कोई कैमरा वाला नहीं है ये तो दूल्हे का दोस्त है!!

खैर अब यहां ना वो दोस्त है. ना ही अब यहां वो दही वाले या कुल्फी वाले आते हैं। और ना ही अब वो भूस की टाल है. यहां तो अब बस मैं हूं, ये मोहल्ला है. या फिर पुरानी यादें हैं!!

Sunday, September 10, 2023

मेरी पहली साइकिल और उसकी यादें

आज सुबह 'आशीष जी' ने फेसबुक पर एक पोस्ट साइकिल पर डाली. उस पोस्ट को पढ़कर हमारी दबी हुई इच्छा जाग-सी गई. दरअसल मैं खुद भी कई साल से एक साइकिल खरीदना चाहता था. उसी से सुबह टहलने जाना चाहता था. उसी से थोड़ा घूमना भी चाहता था. यह इच्छा कोरोना काल में पैदा हुई थी. जब घर में बैठे-बैठे पागल सा हो रहा था. तब यह तमन्ना कभी सो जाती थी और कभी जाग जाती थी. जागने और सोने की अपनी-अपनी वजह थीं.
आज जब 'आशीष जी' ने पोस्ट डाली तो यह तमन्ना फिर से जाग गई. इसके साथ-साथ पुरानी यादें भी फिल्म की तरह मेरी आंखों में चलने लगीं. शायद तब मैं कक्षा 9 या कक्षा 10 में पढ़ता था. ट्रीगोनोमेट्री समझ नहीं आती थी. इसलिए ट्यूशन लगाना पड़ा. ट्यूशन घर से थोड़ा दूर था और वो भी रात को था. इसलिए साइकिल की जरूरत महसूस हुई. घर पर बताया कि मुझे अब साइकिल चाहिए. पिताजी ने कहा ठीक है ले देंगे. हम खुश.
दो एक दिन बाद ऑफिस से पिताजी के साथ उनके एक दोस्त आ गए, जोकि किसी साइकिल की दुकान वाले को जानते थे. उन्होंने आते ही पूछा कि एटलस की साइकिल लेगा या हीरो की. मैंने तपाक से कहा ये वाली साइकिल नहीं लूंगा ( वो साइकिल जो उन दिनों आम थी. अंकल लोग उसे ही लेते थे. उसका नाम क्या है पता नहीं.) मैं तो बस 'रेंजर' साइकिल लूंगा. शायद रेंजर तब आई-आई थी या फिर कुछ एक साल हो गए थे. 'रेंजर' थोड़ी महंगी साइकिल थी. पिताजी की पॉकेट शायद तब उसे खरीदने के लिए हां ना कहती होगी. अंकल जी ने मुझे 'रेंजर' के ना जाने कितने नुकसान बताए लेकिन मैं टस से मस नहीं हुआ. कुछ दिन यूं ही बीत गए.
फिर एक दिन क्या देखता हूं पिताजी के साथ वो अंकल जी 'रेंजर' साइकिल लेकर आ गए. मैं खुशी से झूम उठा. ऐसे खुश था जैसे मेरे लिए बाइक आ गई हो. कई दिनों तक तो मेरे जमीन पर पैर ही नहीं थे. खुशी-खुशी में फिर ना जाने उसमें मैंने क्या-क्या लगवाया वो तो अब याद नहीं लेकिन ये याद है कि कुछ दिन बाद मैंने उसमें एक हूटर लगवा था. जैसा पुलिस की गाड़ियों का होता है. जब भी रात को मैं ट्यूशन से घर आता था तो ट्यूशन सेंटर से लेकर घर तक वो बजता रहता था. और मोहल्ले के लोग कहते थे कि हो ना हो ये सुशील ही होगा. और तो और जहां ट्यूशन पढ़ने जाता था. वहां के लोग भी इसी वजह से पहचाने लगे थे. एक अलग ही टशन थी. जोकि अब बेहद ही खराब लगती है.
जब कुछ दिनों पहले गली से ऐसे ही सायरन बजाती कोई साइकिल गुजरी तो मुझे अपनी यादें याद आने लगीं. और मैं अपनी बेटी को इन यादों को सुनाने लगा. वह यह सब सुनकर कहने लगी, 'अब पुरानी रट मत लगाने लगना कि मैंने साइकिल खरीदनी है.' फिर मैं बोला, 'मन तो अब भी होता है कि साइकिल खरीद ही लूं. 'अपनी कॉलोनी देखी है. और आपका दो दिन का शौक रहेगा. फिर वो यूं ही खड़ी रहा करेगी.' बेटी बोली. और मैं चुप्पी मारकर रह गया.
शायद अगले दिन या दो एक दिन के बाद रात को सायरन बजाती वही साइकिल गली से फिर गुजरी. उसे सुनते ही बेटी बोली,' पापाजी पापाजी देखो आपका बचपन जा रहा है.'

Saturday, July 1, 2023

उसके मन के भाव










1.

वे अपने-अपने हिसाब से चलते रहे 

वो उनके हिसाब से बदलता रहा! 

2.

रिश्ते 

सब-के-सब 

अपने-अपने 

'खून' के साथ 

खड़े हो गए. 

एक था वो 

जो 'सही' के साथ 

खड़ा रहा. 

और अकेला रह गया. 

3.

वो अपने ही घर में 

किराएदार हो गया 

लोग कहते हैं कि 

वो अपनी जिंदगी में 

नाकामयाब हो गया. 

Friday, May 26, 2023

'जंगल जलेबी' वाला लड़का


बेटी के पेपर चल रहे हैं. एक पेपर के दौरान बेटी की एग्जाम सेंटर में एंट्री कराने के बाद मैं समय काटने के लिए यूं ही सेंटर के आसपास टहल रहा था. फिर सोचा जब टाइम पास ही करना है तो क्यों ना बेटी के खाने के लिए कुछ सामान खरीद लाता हूं. पेपर देकर निकलेगी तो खा लेगी. बस फिर क्या था परचून की दुकान की खोज होने लगी. इधर-उधर काफी भटकने के बाद जब कहीं वो दुकान नहीं मिली, जिस पर से केक, चाकलेट, बिस्कुट आदि कुछ मिल सके.खैर पता करने पर दूर एक दुकान का पता चला. केक, चाकलेट, बिस्कुट खरीदकर मैं सेंटर के लिए हो लिया. रास्ते में एक पार्क मिला. जहां बच्चों के अभिवाहक धूप से बचने के लिए इधर-उधर बैठे थे. मैं भी वही खड़ा हो गया. और खड़े-खड़े एक चाकलेट खा गया. चाकलेट खाकर जब फ़ारिग़ हुआ. टाइम देखा तो अभी भी पेपर छूटने में काफी समय था. तभी देखा पार्क के एक कोने में लगे पेड़ पर कोई आठ-एक साल का बच्चा प्लास्टिक की रस्सी से एक पानी की बोतल को बांधकर बार-बार पेड़ की तरह फेंक रहा था. पहले तो समझ नहीं आया कि ये बच्चा कर क्या रहा है. फिर जब पास जाकर देखा तो पता लगा ये बच्चा तो  पेड़ से 'जंगल जलेबी' तोड़ने की कोशिश कर रहा है. वो मैले-से कपड़े पहना था. ऐसा लगा रहा था जैसे कई दिन से नहाया भी ना हो. यूं तो पेंट कमीज पहने था लेकिन उसकी पेंट कमर से थोड़ा बड़ी थी शायद. इसलिए बार-बार उसे ऊपर किए जा रहा था. पहले उस रस्सी से बंधी बोतल को पेड़ पर फेंकता और फिर तुरंत ही पेंट को ऊपर करता. काफी देर के प्रयास के बाद उसे एक दो 'जंगल जलेबी' मिल गई लेकिन शायद उसे ज्यादा 'जंगल जलेबी' की जरुरत थी या उसकी ज्यादा पाने की इच्छा थी. मैं उसकी इस लगन को देखे जा रहा था. पास खड़े दो-चार अभिवाहक उसे गाइड भी कर रहे थे कि ऐसे नहीं फेंको, वैसे फेंको. उस तरफ जाकर फेंको.


अब तक मेरे दिमाग में बस यही आ रहा था कि ये भरी दुपहरी में ऐसा क्यों कर रहा है? क्या इसे भूख लगी है? क्या बस 'जंगल जलेबी' के लिए ही ऐसा कर रहा है? दिमाग में ये नहीं आया कि बैग में बिस्कुट, केक भी तो रखे हैं. मैं बस उसकी मेहनत और लगन को ही देखता रहा. और उसकी 'जंगल जलेबी' पाने की इच्छा से प्रभावित होता रहा. मुझे याद नहीं आता कि मैंने कभी 'जंगली जलेबी' को इस तरह तोड़कर कभी खाया हो. बस इतना याद है कि मेरे ननिहाल में एक मामा हैं वो एक बकरी पाला करते थे. वे उसे अपने पास ना रखकर बकरी पालने वाले दिए रखते थे. और रोज उस बकरी के लिए कुछ ना कुछ खाने के लिए ले जाते थे. वे ढेर सारी बकरियों में भी उसे पहचान लिया करते थे. और उनकी एक आवाज पर वो बकरी दौड़ी चली आती थी. उन्ही दिनों एक बार उन्होंने मुझे 'जंगल जलेबी' खाने के लिए दी थी. उस दिन पता चला था कि जलेबी ही नहीं एक 'जंगल जलेबी' भी होती है. उस दिन के बाद 'जंगल जलेबी' तो कई बार देखी. लेकिन कभी दुबारा खाई नहीं. खैर थोड़ी ही देर बाद मुझे ख़याल आया कि अरे बैग में बेटी के खाने का सामान रखा है. उसमें से कुछ तो इसको दिया ही जा सकता है. फिर मैंने उसे अपने पास बुलाया. बैग खोला तो सामने केक ही था और वो मैंने उसे दे दिया. वो पूछने लगा कि ये क्या है? मैंने कहा कि केक है.केक! शायद उसे केक के बारे में पता नहीं था. केक को लेकर वो फिर से 'जंगल जलेबी' तोड़ने लगा. कहानी बस यही खत्म नहीं होती है. असल कहानी तो आगे शुरू होती है. दरअसल उससे वो केक का पैकेट संभल नहीं रहा था. शायद केक के पैकेट को वो नीचे रखना नहीं चाहता था. क्या पता उसे भूख भी लगी हो. फिर उसने 'जंगल जलेबी' तोड़ना बंद कर दिया. उस रस्सी बंधी बोतल को वहीँ छोड़कर वो केक को लेकर आगे बढ़ गया. मैं वही खड़ा रह गया. फिर कुछ देर बाद जब मैं सेंटर के पास जाने लगा तो बीच रास्ते में वो मुझे फिर मिला. केक बस थोड़ा-सा ही बचा था. तभी उसके पास खड़ी दो लड़कियों में एक लड़की उससे 'जंगल जलेबी' मांगने लगी. ये लड़कियां शायद किसी दोस्त या बहन-भाई का पेपर दिलवाने लाई थीं. और मेरी ही तरह पेपर के छूटने का इंतजार कर रही थीं. इनके 'जंगल जलेबी' के मांगने पर उसने 'जंगल जलेबी' को छिला और एक पीस उन्हें देने लगा लेकिन उन लड़कियों ने वो पीस लेने से मना कर दिया. और कहा कि दूसरा वाला दो. फिर उसने बची हुई पूरी 'जंगल जलेबी' उस लड़की को दे दी. मैं उस बच्चे को देखता हुआ. उसके मिल-बांटकर खाने वाले दिल को महसूस करता हुआ आगे बढ़ गया. 

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